BHDC 114 Solved Assignment 2022-2023

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भाग-1


1. प्रयोजनमूलक से क्या तात्पर्य हे, इसके महत्त्व को रेखांकित कीजिए ।

Answer 1 :-

प्रयोजनमूलक से तात्पर्य हिन्दी के उस स्वरुप से है जो विज्ञान, तकनीकी, विधि, संचार एवं अन्यान्य गतिविधियों में प्रयुक्त होती है। इसे 'कामकाजी हिन्दी' भी कहा जाता है।

व्यक्ति द्वारा विभिन्‍न रूपों में बरती जाने वाली भाषा को भाषा-विज्ञानियों ने स्थूल रूप से सामान्य भाषा और प्रयोजनमूलक भाषा इन दो भागों में विभक्त किया है। कुछ लोग भाषा को 'बोलचाल की भाषा', 'साहित्यिक भाषा' और 'प्रयोजनमूलक भाषा' - इन तीन भागों में विभाजित करते हैं।

जिस भाषा का प्रयोग किसी विशेष प्रयोजन के लिए किया जाए, उसे 'प्रयोजनमूलक भाषा' कहा जाता है। यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि प्रयोजन के अनुसार शब्द-चयन, वाक्‍्य-गठन और भाषा-प्रयोग बदलता रहता है।

भारत की राजभाषा के पद पर आसीन होने से पूर्व हिन्दी सरकारी कामकाज तथा प्रशासन की भाषा नहीं थी। मुग़ाल शासकों के समय फारसी या उर्दू और अंग्रेजों के समय अंग्रेजी राजकाज की भाषा थी। स्वतन्त्रता के बाद हिन्दी भारत की राजभाषा बनी।

इसके फलस्वरुप हिन्दी को साहित्य लेखन के साथ-साथ अब तक अनछुए क्षेत्रों से होकर गुजरना पड़ा, जैसे- आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और प्रौद्योगिकी, सरकारी कामकाज तथा प्रशासन, विधि, दूरसंचार, व्यवसाय, वाणिज्य, खेलकूद, पत्रकारिता आदि। इस प्रकार 'प्रयोजनमूलक हिन्दी' की अवधारणा सामने आयी।

आन्ध्र प्रदेश के भाषा-विद्‌ श्री मोटूरि सत्यनारायण के प्रयासों ने सन 1972 ई. में 'प्रयोजनमूलक हिन्दी को स्थापना दी। उन्हें चिन्ता थी कि हिन्दी कहीं केवल साहित्य की भाषा बनकर न रह जाए। उसे जीवन के विविध प्रकार्यों की अभिव्यक्ति में समर्थ होना चाहिए। बनारस में सन्‌ 1974 ई. में आयोजित एक संगोष्ठी के बाद प्रयोजनमूलक हिन्दी के क्षेत्र में क्रांतिकारी विकास हुआ।

प्रयोजनमूलक हिन्दी की संकल्पना आने के पहले भारत के विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों के अन्तर्गत स्नातकोत्तर स्तर पर मुख्य रूप से हिन्दी साहित्य एवं आठ प्रश्नपत्रों में से केवल एक प्रश्नपत्र में भाषाविज्ञान के सामान्य सिद्धान्तों एवं हिन्दी भाषा के ऐतिहासिक विकास का अध्ययन अध्यापन हो रहा था।


लेकिन मोटूरि सत्यनारायण ने यह विचार सामने रखा कि । साहित्य एवं प्रशासन के क्षेत्रों के अलावा अन्य विभिन्‍न क्षेत्रों के प्रयोजनों की पूर्ति के लिए जिन भाषा रूपों का प्रयोग एवं व्यवहार होता है, उनके अध्ययन और अध्यापन की भी आवश्यकता है।

हिन्दी भारत की राजभाषा ही नहीं, सम्पर्क भाषा और जनभाषा भी है। हिन्दी केवल साहित्य की भाषा न रहे बल्कि जीवन के विविध क्षेत्रों में प्रभावी रूप से प्रयुक्त हो, तभी इसका विकास सुनिश्चित होगा। सुखद सूचना यह है कि विविध विश्वविद्यालयों के हिन्दी के पाठ्यक्रमों मैं 'प्रयोजनमूलक हिन्दी' को स्थान दिया जा रहा है।

प्रयोजनमूलक हिन्दी आज भारत के बहुत बड़े फलक और धरातल पर प्रयुक्त हो रही है। केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच संवादों का पुल बनाने में आज इसकी महती भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। आज इसने कम्प्यूटर, टेलेक्स, तार, इलेक्ट्रॉनिक, टेलीप्रिंटर, दूरदर्शन, रेडियो, अखबार, डाक, फिल्‍म और विज्ञापन आदि जनसंचार के माध्यमों को अपनी गिरफ्त में ले लिया है।

शेयर बाजार, रेल, हवाई जहाज, बीमा उद्योग, बैंक आदि औद्योगिक उपक्रम, रक्षा, सेना, इन्जीनियरिंग आदि प्रौद्योगिकी संस्थान, तकनीकी और वैज्ञानिक क्षेत्र, आयुर्विज्ञान, कृषि, चिकित्सा, शिक्षा, विश्वविद्यालय, सरकारी और अर्दसरकारी कार्यालय आदि कोई भी क्षेत्र हिन्दी से अछूता नहीं रह गया है।

चिट्ठी-पत्री, लेटर पैड, स्टॉक-रजिस्टर, लिफाफे, मुहरें, नामपट्ट, स्टेशनरी के साथ-साथ कार्यालय-ज्ञापन, परिपत्र, आदेश, राजपत्र, अधिसूचना, अनुस्मारक, प्रेस-विज्ञाप्ति, निविदा, नीलाम, अपील, केबलग्राम, मंजूरी पत्र तथा पावती आदि में प्रयुक्त होकर अपने महत्त्व को स्वतः सिद्ध कर दिया है। कुल मिलाकर यह कि पर्यटन बाजार, तीर्थस्थल, कल-कारखने, कचहरी आदि अब प्रयोजनमूलक हिन्दी की जद में आ गए हैं। हिन्दी के लिए यह बहुत ही शुभ है।

वैज्ञानिक एवं तकनीकी हिन्दी से तात्पर्य हिन्दी के उस स्वरूप से है जिसका प्रयोग विज्ञान और तकनीकी विषयों को अभिव्यक्त करते के लिए किया जाता है। 1961 में भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के अधीन वैज्ञानिक और तकनिकी शब्दावली आयोग की स्थापना की गई। विज्ञान एंव टेक्नोलाजी की भाषा सामान्य व्यवहार की भाषा से सर्वथा भिन्न होती है, अतः इसके लिए हिन्दी, संस्कृत, के साथ अन्तर्राष्टीय शब्दावली का प्रयोग करते हुए शब्दावली का निर्माण किया गया।


2. हिंदी और राजभाषा अधिकनियम पर प्रकाश डालिए ।

Answer 2 :-

संविधान सभाने. लम्बी चर्चा. के. बाद. 14. सितम्बर सन्‌ 1949 को हिन्दी को भारत की राजभाषा स्वीकारा गया। इसके बाद संविधान में अनुच्छेद 343 से 357 तक राजभाषा के सम्बन्ध में व्यवस्था की गयी। इसकी स्मृति को ताजा रखने के लिये 14 सितम्बर का दिन प्रतिवर्ष हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। ध्यातव्य है कि भारतीय संविधान में राष्ट्रभाषा का उल्लेख नहीं है।

14 सितम्बर की शाम को संविधान सभा में हुई बहस के समापन के बाद जब संविधान का भाषा सम्बन्धी तत्कालीन भाग 4 क और वर्तमान भाग 7, संविधान का भाग बन गया तब डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने अपने भाषण में बधाई के कुछ शब्द कहे। उन्होंने कहा, "आज पहली ही बार ऐसा संविधान बना है जब कि हमने अपने संविधान में एक भाषा रखी है, जो संघ के प्रशासन की भाषा होगी।


इस अपूर्व अध्याय का देश के निर्माण पर बहुत प्रभाव पड़ेगा"। उन्होंने इस बात पर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की कि संविधान सभा ने अत्यधिक बहुमत से भाषा-विषयक प्रावधानों को स्वीकार किया। अपने वक्तव्य के उपसंहार में उन्होंने जो कहा वह अविस्मरणीय है। उन्होंनेकहा, यह मानसिक दशा का भी प्रश्न है जिसका हमारे समस्त जीवन पर प्रभाव पड़ेगा।

हम केन्द्र में जिस भाषा का प्रयोग करेंगे उससे हम एक-दूसरे के निकटतर आते जाएँगे। आखिर अंग्रेज़ी से हम निकटतर आए हैं, क्योंकि वह एक भाषा थी। अब उस अंग्रेज़ी के स्थान पर हमने एक भारतीय भाषा को अपनाया है। इससे अवश्यमेव हमारे संबंध घनिष्ठतर होंगे, विशेषतः इसलिए कि हमारी परम्पराएँ एक ही हैं, हमारी संस्कृति एक ही है और हमारी सभ्यता में सब बातें एक ही हैं।

अतएव यदि हम इस सूत्र को स्वीकार नहीं करते तो परिणाम यह होता कि या तो इस देश में बहुत-सी भाषाओं का प्रयोग होता या वे प्रांत पृथक हो जाते जो बाध्य होकर किसी भाषा विशेष को स्वीकार करना नहीं चाहते थे। हमने यथासम्भव बुद्धिमानी का कार्य किया है और मुझे हर्ष है, मुझे प्रसन्नता है और मुझे आशा है कि भावी संतति इसके लिए हमारी सराहना करेगी। संविधान. की. धारा. 343)... के. अनुसार. भारतीय. संघ. की राजभाषा हिन्दी एवं लिपि देवनागरी है। संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिये प्रयुक्त अंकों का रूप भारतीय अंकों का अंतरराष्ट्रीय स्वरूप (अर्थात 1, 2, 3 आदि) है।


किन्तु इसके साथ संविधान में यह भी व्यवस्था की गई कि संघ के कार्यकारी, न्यायिक और वैधानिक प्रयोजनों के लिए 1965 तक अंग्रेजी का प्रयोग जारी रहे। तथापि यह प्रावधान किया गया था कि उक्त अवधि के दौरान भी राष्ट्रपति कतिपय विशिष्ट प्रयोजनों के लिए हिन्दी के प्रयोग का प्राधिकार दे सकते हैं।

संसद का कार्य हिन्दी में या अंग्रेजी में किया जा सकता है। परन्तु राज्यसभा के सभापति या लोकसभा के अध्यक्ष विशेष परिस्थिति में सदन के किसी सदस्य को अपनी मातृभाषा में सदन को सम्बोधित करने की अनुमति दे सकते हैं (संविधान का अनुच्छेद 120)।

किन प्रयोजनों के लिए केवल हिन्दी का प्रयोग किया जाना है, किन के लिए हिन्दी और अंग्रेजी दोनों आाषाओं का प्रयोग आवश्यक है, और किन कार्यों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाना है, यह राजभाषा अधिनियम 1963, राजभाषा नियम 1976 और उनके अन्तर्गत समय समय पर राजभाषा विभाग, गृह मन्त्रालय की और से जारी किए गए निर्देशों दवारा निर्धारित किया गया है।

यद्यपि भारत एक बहुआषायी देश था किन्तु बहुत लम्बे काल से हिन्दी या उसका कोई स्वरूप इसके बहुत बड़े आग पर सम्पर्क भाषा के रूप में प्रयुक्त होता था। भक्तिकाल मैं उत्तर से दक्षिण तक, पूरब से पश्चिम तक अनेक सन्तों ने हिन्दी में अपनी रचनाएँ कीं। स्वतंत्रताआन्दोलन में हिन्दी पत्रकारिता ने महान भूमिका अदा की। राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, महात्मा गांधी, सुभाष चन्द्र बोस, सुब्रहमण्य भारती आदि अनेकानेक लोगों ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने का सपना देखा था।

महात्मा गांधी ने 1917 में भरूच में गुजरात शैक्षिक सम्मेलन में अपने अध्यक्षीय भाषण मैं राष्ट्रभाषा की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा था कि भारतीय भाषाओं में केवल हिंदी ही एक ऐसी भाषा है जिसे राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाया जा सकता है क्योंकि यह अधिकांश भारतीयों द्वारा बोली जाती है; यह समस्त भारत में आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक सम्पर्क माध्यम के रूंप मैं प्रयोग के लिए सक्षम है तथा इसे सारे देश के लिए सीखना आवश्यक है।

3. पारिभाषिक शब्दावली तथा प्रयोजनमूलक हिंदी की प्रयुक्तियों पर टिप्पणी लिखिए।

Answer 3 :-


प्रयोजनमूलक शब्द पारिभाषिक होते हैं। किसी वस्तु के कार्य-कारण सम्बन्ध के आधार पर उनका नामकरण होता है, जो शब्द से ही प्रतिध्वनित होता है। ये शब्द वैज्ञानिक तत्वों की भाँति सार्वभौमिक होते हैं। हिन्दी की पारिभाषिक शब्दावली इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।

व्यक्ति द्वारा विभिन्‍न रूपों में बरती जाने वाली भाषा को भाषा-विज्ञानियों ने स्थूल रूप से सामान्य भाषा और प्रयोजनमूलक भाषा इन दो भागों में विभक्त किया है। कुछ लोग भाषा को 'बोलचाल की भाषा', 'साहित्यिक भाषा' और 'प्रयोजनमूलक भाषा' - इन तीन भागों में विभाजित करते हैं।


जिस भाषा का प्रयोग किसी विशेष प्रयोजन के लिए किया जाए, उसे 'प्रयोजनमूलक भाषा" कहा जाता है। यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि प्रयोजन के अनुसार शब्द-चयन, वाक्य-गठन और भाषा-प्रयोग बदलता रहता है।

भारत की राजभाषा के पद पर आसीन होने से पूर्व हिन्दी सरकारी कामकाज तथा प्रशासन की भाषा नहीं थी। मुऱाल शासकों के समय फारसी या उर्दू और अंग्रेजों के समय अंग्रेजी राजकाज की भाषा थी। स्वतन्त्रता के बाद हिन्दी भारत की राजभाषा बनी। इसके फलस्वरुप हिन्दी को साठित्य लेखन के साथ-साथ अब तक अनछुए क्षेत्रों से होकर गुजरना पड़ा, जैसे- आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और प्रौद्योगिकी, सरकारी कामकाज तथा प्रशासन, विधि, दूरसंचार, व्यवसाय, वाणिज्य, खेलकूद, पत्रकारिता आदि। इस प्रकार 'प्रयोजनमूलक हिन्दी' की अवधारणा सामने आयी।

आन्ध्र प्रदेश के भाषा-विद्‌ श्री मोटूरि सत्यनारायण के प्रयासों ने सन 1972 ई. में प्रयोजनमूलक हिन्दी को स्थापना दी। उन्हें चिन्ता थी कि हिन्दी कहीं केवल साहित्य की भाषा बनकर न रह जाए। उसे जीवन के विविध प्रकार्यों की अभिव्यक्ति में समर्थ होना चाहिए। बनारस में सन्‌ 1974 ई. में आयोजित एक संगोष्ठी के बाद प्रयोजनमूलक हिन्दी के क्षेत्र में क्रांतिकारी विकास हुआ।




प्रयोजनमूलक हिन्दी की संकल्पना आने के पहले भारत के विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों के अन्तर्गत स्नातकोत्तर स्तर पर मुख्य रूप से हिन्दी साहित्य एवं आठ प्रश्नपत्रों में से केवल एक प्रश्नपत्र में आषाविज्ञान के सामान्य सिद्धान्तों एवं हिन्दी भाषा के ऐतिहासिक विकास का अध्ययन अध्यापन हो रहा था।

लेकिन मोटूरि सत्यनारायण ने यह विचार सामने रखा कि । साहित्य एवं प्रशासन के क्षेत्रों के अलावा अन्य विभिन्‍न क्षेत्रों के प्रयोजनों की पूर्ति के लिए जिन भाषा रूपों का प्रयोग एवं व्यवहार होता है, उनके अध्ययन और अध्यापन की भी आवश्यकता है।


हिन्दी भारत की राजभाषा ही नहीं, सम्पर्क भाषा और जनभाषा भी है। हिन्दी केवल साहित्य की भाषा न रहे बल्कि जीवन के विविध क्षेत्रों में प्रभावी रूप से प्रयुक्त हो, तभी इसका विकास सुनिश्चित होगा। सुखद सूचना यह है कि विविध विश्वविद्यालयों के हिन्दी के पाठेयक्रमों मैं 'प्रयोजनमूलक हिन्दी' को स्थान दिया जा रहा है।

प्रयोजनमूलक हिन्दी आज भारत के बहुत बड़े फलक और धरातल पर प्रयुक्त हो रही है। केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच संवादों का पुल बनाने में आज इसकी महती भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। आज इसने कम्प्यूटर, टेलेक्स, तार, इलेक्ट्रॉनिक, टेलीप्रिंटर, दूरदर्शन, रेडियो, अखबार, डाक, फिल्म और विज्ञापन आदि जनसंचार के माध्यमों को अपनी गिरफ्त मैं ले लिया है।

शेयर बाजार, रेल, हवाई जहाज, बीमा उद्योग, बैंक आदि औद्योगिक उपक्रम, रक्षा, सेना, इन्जीनियरिंग आदि प्रौद्योगिकी संस्थान, तकनीकी और वैज्ञानिक क्षेत्र, आयुर्विज्ञान, कृषि, चिकित्सा, शिक्षा, विश्वविद्यालय, सरकारी और अर्धसरकारी कार्यालय आदि कोई भी क्षेत्र हिन्दी से अछूता नहीं रह गया है।

चिट्ठी-पत्री, लेटर पैड, स्टॉक-रजिस्टर, लिफाफे, मुहरें, नामपट्ट, स्टेशनरी के साथ-साथ कार्यालय-ज्ञापन, परिपत्र, आदेश, राजपत्र, अधिसूचना, अनुस्मारक, प्रेस-विज्ञाप्ति, निविदा, नीलम, अपील, केबलग्राम, मंजूरी पत्र तथा पावती आदि मैं प्रयुक्त होकर अपने महत्त्व को स्वतः सिद्ध कर दिया है। कुल मिलाकर यह कि पर्यटन बाजार, तीर्थस्थल, कल-कारखने, 'कचहरी आदि अब प्रयोजनमूलक हिन्दी की जद में आ गए हैं। हिन्दी के लिए यह बहुत ही शुभ है। 

भाग-2


4. कार्यालयी हिंदी की भाषिक प्रकृति को समझाइए ।

Answer 4 :-

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और 'भाषा' समाज के सदस्यों के बीच संपर्क एवं संवाद का माध्यम बनती है। बिना संपर्क और संवाद के कोई भी समाज जीवंत नहीं माना जा सकता अर्थात्‌ बिना भाषा के किसी भी समाज का अस्तित्व संभव ही नहीं है।

जिस प्रकार मनुष्य को खाने के लिए अन्न, पीने के लिए पानी, पहनने के लिए कपड़े की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार आपस में सम्पर्क और संबंध बनाए रखने के लिए भाषा की आवश्यकता होती है। भाषा से ही मनुष्य अपना जीवन सुगम बनाता है।

वर्षों की यात्रा के पश्चात्‌ भाषा में निरन्तर परिवर्तन होते रहे हैं और भाषा का महत्त्व भी लगातार बढ़ता गया है। समाज के बीच संवाद-सम्प्रेषण और संबंध स्थापन भाषा का प्राथमिक कार्य है, किन्तु भाषा समाज की एक सीधी और सरल रेखा में चलने वाली इकाई नहीं है । समाज तथा इसके सदस्यों के अस्तित्व और चरित्र के अनेक आयाम होते हैं और इन सभी आयामों के संदर्भ में भाषा की विशिष्ट भूमिका होती है।

भारत में विभिन्‍न भाषाओं में संवाद होता है। इन सभी भाषाओं की अपनी एक यात्रा रही है लेकिन भारतीय समाज की सम्पर्क भाषा 'हिन्दी' ने जहाँ वैदिक संस्कृत से यात्रा करते हुए आधुनिक हिन्दी का स्वरूप ग्रहण किया है वह एक सामाजिक क्रिया का आधार है। समाज निरन्तर अपने विकास के साथ-साथ भाषाओं का भी विकास करता है।




समाज में होने वाले परिवर्तन की तरह ही उसकी अपनी भाषा में भी कभी स्थैर्य नहीं रहा। इसीलिए निरन्तर परिवर्तनों की धार पर चलकर हिन्दी अपने अनेक रूपों के साथ वर्तमान में समाज के सम्मुख उपस्थित है। हिन्दी की प्रयोजनीयता के आधार पर उसके विभिन्‍न रूप इस प्रकार हैं-

1. साहित्यिक हिन्दी

2. कार्यालयी हिन्दी

3. व्यावसायिक हिन्दी

4. विधिपरक हिन्दी

5. जनसंचार के माध्यमों की हिन्दी

6. वैज्ञानिक और तकनीकी हिन्दी

7. सामाजिक हिन्दी

वैसे तो कार्यालयी हिन्दी अपने आप में एक व्यापक अर्थ की अभिव्यक्ति रखता है। चूँकि साहित्यिक क्षेत्र हो अथवा व्यावसायिक, पत्रकारिता का क्षेत्र हो ज विज्ञान और तकनीकी का क्षेत्र सभी क्षेत्रों से सम्बद्ध कार्यालयों में काम करने वाले व्यक्ति एक तरह से कार्यालयी हिन्दी का ही प्रयोग करते हैं। इसलिए कार्यालयी हिन्दी अपने-आप में व्यापक अर्थ की अभिव्यंजना रखती है।

भाषा मनुष्य की अभिव्यक्ति का एक माध्यम है। अलग-अलग क्षेत्रों में भाषा का रूप भी बदलता है। दैनिक जीवन में मनुष्य अपने सम्प्रेषण के लिए जिस भाषा का प्रयोग करता है वह मौखिक व बोलचाल की भाषा होती है। वैसे तो भाषा के प्रत्येक रूप में मानकता का निर्वाह होना आवश्यक है लेकिन बोलचाल की भाषा में यदि मानकता का प्रयोग नहीं भी किया जाता 'तब भी वह सामाजिक जीवन में लगातार प्रयोग में अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त आधार रहती है।

इसी तरह सांस्कृतिक संदर्भ में भाषा का रूप लोकगीतों में जिस प्रकार होता है वह मौखिक परम्परा के कारण मानकता का निर्वाह भले ही न करती हो लेकिन हमारी सांस्कृतिक अस्मिता को संजोए रखने में उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।

इसी तरह साहित्यिक हिन्दी का स्वरूप जहाँ अपनी परिनिष्ठता के कारण अपनी अलग पहचान रखता है वहीं आंचलिक साहित्य में क्षेत्रीतया के प्रभाव के कारण साहित्यिक हिन्दी एक नए रूप में भी हमारे सामने आती है। इसलिए साहित्यिक हिन्दी का रूप भी पूर्णतः निर्धारित नहीं किया जा सकता।



वर्तमान दौर में तकनीकी के आगमन के बाद जनसंचार के विभिन्‍न माध्यमों में हिन्दी का वर्चस्व तेजी से बढ़ने लगा है। जनसंचार के इन माध्यमों की हिन्दी सामान्य बोलचाल के निकट होती है। लेकिन मानकता की दृष्टि से वह भी निधारित मापदण्ड पर सही नहीं ठहरती।

इसका कारण है कि जनसंचार का मुख्य उद्दश्य समाज के विशाल वर्ग तक सामाजिक जीवन के विभिन्‍न क्षेत्रों की सूचना को सम्प्रेषण करना है और भारत जैसे विशाल राष्ट्र मैं सरल और सुबोध भाषा के द्वारा ही विशाल जनसमुदाय तक अभिव्यक्ति सम्भव हो सकती है। इसीलिए जनसंचार के माध्यमों में हिन्दी के अतिरिक्त अन्य भाषाओं के शब्दों का व्यावहारिक प्रयोग उसे मानकता से परे करता है।

इन रूपों के अतिरिक्त व्यापार, वाणिज्य, विधि, खेल आदि अनेक क्षेत्रों में हिन्दी के रूप पारिशाघषिक के साथ-साथ स्वतंत्र भी थे। इन क्षेत्रों की अपनी विशिष्ट भाषा के कारण इसका प्रयोग सीमित रूप में ही किया जा सकता था। इन क्षेत्रों से सम्बन्धित लोगों में ही इस भाषा के अर्थ को समझने की क्षमता होती है। लेकिन इन क्षेत्रों में हिन्दी का मानकीकृत रूप ही स्वीकार्य होता है


हिन्दी के इन विभिन्‍न रूपों और अनेक अन्य रूपों में भाषा का जो स्वरूप होता है वह कार्यालयी हिन्दी में प्रयुक्त नहीं होता। कार्यालयी हिन्दी इससे भिन्न पूर्णतः मानक एवं पारिभाषिक शब्दों को ग्रहण करके चलती है। कार्यालयी हिन्दी सामान्य रूप से वह हिन्दी है जिसका प्रयोग कार्यालयों के दैनिक कामकाज में व्यवहार में लिया जाता है।

विभिन्‍न विद्वानों ने यह माना है कि चाहे वह किसी भी क्षेत्र का कार्यालय हो, उसमें प्रयोग में ली जाने वाली हिन्दी कार्यालयी हिन्दी ही कहलाती है। डॉ. डी.के. जैन का मत है कि-"वह हिन्दी जिसका दैनिक व्यवहार, पत्राचार, वाणिज्य, व्यापार, प्रशासन, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, चिकित्सा, योग, संगीत, ज्योतिष, रसायनशास्त्र आदि क्षेत्रों में प्रयोग होता है, उसे कार्यालयी या कामकाजी हिन्दी कहा जाता है।"

(प्रयोजनमूलक हिन्दी, पृष्ठ 9) इसी तरह डॉ. उषा तिवारी का मानना है कि "सरकारी कामकाज में प्रयुक्त होनें वाली भाषा को प्रशासनिक हिन्द्री याकार्यालयीन हिन्दी कहा जाता है। हिन्दी का वह स्वरूप जिसमें प्रशासन के काम में आने वाले शब्द, वाक्य अधिक प्रयोग में आते हों।

5. प्रशासनिक पत्राचार के विविध रूपों पर प्रकाश डालिए।

Answer 5 :-

प्रशासनिक दृष्टि से भारत राज्यों या प्रान्तों में विभक्त है; राज्य, जनपदों (या जिलों) में विभक्त हैं, जिले तहसील (तालुक या मण्डल) में विभकत हैं। यह विभाजन और नीचे तक गया है।भारत 28 राज्यों और 8 केंद्र शासित प्रदेशों (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र सहित) से मिलकर बना है।

केंद्र शासित प्रदेश उप-राज्यपाल द्वारा संचालित होते हैं, जिसे भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है। आठों प्रदेशों में से दो (दिल्‍ली और पुडुचेरी) को आंशिक राज्य का दर्जा दिया गया है। इन प्रदेशों में सीमित शक्तियों वाली निर्वाचित विधायिकाओं और मंत्रियों की कार्यकारी परिषदों का प्रावधान है।

भारत के सभी राज्यों को के बीच सहकारी कार्यों में सहभागिता सुनिश्चित करने के लिए इन राज्यों को एक सलाहकार परिषद वाले छह अंचलों मैं समूहबद्ध किया गया है। राज्य पुनर्गठन अधिनियम के तीसरे भाग के अंतर्गत 1956 मैं पांच आंचलिक परिषदों की स्थापना की गई थी।


पूर्वोत्तर राज्यों की विशेष समस्याओं को ध्यान में रखते हुए उत्तर पूर्वी परिषद अधिनियम के अंतर्गत 1972 में पूर्वोत्तर अंचल का गठन किया गया। उत्तर-पूर्वी परिषद (संशोधन, ' अधिनियम द्वारा 23 दिसंबर 2002 को पूर्वोत्तर अंचल में सिक्किम राज्य को भी शामिल कर दिया गया।अण्डमान और निकोबार दूवीपसमूह और लक्षद्वीप किसी भी अंचल में शामिल नहीं हैं, हालांकि ये दक्षिणी आंचलिक परिषद के विशेष आमंत्रितों में हैं। वर्तमान में प्रत्येक क्षेत्रीय परिषद की संरचना निम्नानुसार है:

कुछ राज्यों मैं उन क्षेत्रों का भी समावेश है, जिनके पास कोई आधिकारिक प्रशासनिक सरकारी स्थिति नहीं है। वे विशुद्ध भौगोलिक क्षेत्र हैं; हालांकि कुछ क्षेत्र ऐतिहासिक देशों, राज्यों या प्रांतों के अनुरूप भी हैं। एक क्षेत्र में एक या एक से अधिक मण्डल शामिल हो सकते हैं, लेकिन, क्षेत्रों की और मण्डलों की सीमाएँ हमेशा बिल्कुल एक नहीं होती है। अब तक इन क्षेत्रों को आधिकारिक प्रशासनिक स्थिति देने के लिए कोई बड़ा आंदोलन नहीं रहा है।

दाम भारत में उपविभागों का सबसे निम्न स्तर है। ग्राम स्तर के सरकारी निकायों को ग्राम पंचायत कहा जाता है, जो कि 2002 में अनुमानित 2,56,000 थे। प्रत्येक ग्राम पंचायत के अधिकार क्षेत्र में एक बड़ा ग्राम या छोटे ग्रामों का एक समूह होता है, जिनकी कुल मिलाकर 500 ग्राम सभा से अधिक जनसंख्या होती है। ग्रामों के समूहों को कभी-कभी होब्ली या पट्टी भी कहा जाता है।

कुछ सरकारी कार्य और गतिविधियां - जिनमें साफ पेयजल की उपलब्धता, ग्रामीण विकास और शिक्षा शामिल हैं - एक ग्राम से भी निचले स्तर पर ही करी जाती हैं। इनको ही "बस्तियों" कहा जाता है। भारत में ऐसी 7,4,556 बस्तियां हैं। कुछ राज्यों के अधिकांश गांवों में एक ही बस्ती है; लेकिन दूसरों में (विशेषकर केरल और त्रिपुरा) के गांवों में बस्तियों का उच्च अनुपात है।

6. टिप्पण लेखन अथवा मसौदा लेखन से क्या आशय है, एक प्रारूप के माध्यम से समझाइए ।

Answer 6 :-

'लिखित रिपोर्ट वह दस्तावेज है जो विशिष्ट दर्शकों के लिए केंद्रीकृत और मुख्य सामग्री प्रस्तुत करती है। रिपोर्ट का इस्तेमाल प्रायः एक प्रयोग, जांच या पूछताछ के परिणाम को प्रदर्शित करने के लिए किया जाता है। यह रिपोर्ट सार्वजनिक या निजी, एक व्यक्ति विशेष या आम जनता के लिए हो सकती है। रिपोर्ट का प्रयोग सरकारी, व्यवसायिक, शिक्षा, विज्ञान और अन्य क्षेत्रों में होता है।

रिपोर्ट में प्रायः प्रत्ययकारी तत्वों का प्रयोग होता है, जैसे चित्रालेख, चित्र, आवाज़ या विशेष रूप से तैयार की गयी शब्दावली जिससे कि विशिष्ट दर्शकों को कार्यवाही करने हेतु विश्वास दिलाया जा सके. रिपोर्ट प्रस्तुत करने के सर्वाधिक प्रचलित प्रारूप है आईएमआरएडी (IMRAD): इंट्रोडक्‍्शन (परिचय), मेथइस (तरीका), रिज़ल्ट्स (परिणाम) एंड (और) डिस्कशन (चर्चा)।

यह संरचना इस विधा के लिए मानक है क्यूंकि यह वैज्ञानिक अनुसंधानों के पारंपरिक प्रकाशन के समान है और इस क्षेत्र की विश्वसनीयता व लोकाचार की भावना को भी व्यक्त करती है। यह आवश्यक नहीं है कि रिपोर्ट में इसी शैली का पालन किया जाये और इसके अतिरिक्त अन्य वैकल्पिक शैलियों का भी प्रयोग किया जा सकता है जैसे समस्या-समाधानप्रारूप (प्रौब्लन-सौल्युशन फौरमेट)।

यह संरचना इस विधा के लिए मानक है क्यूंकि यह वैज्ञानिक अनुसंधानों के पारंपरिक प्रकाशन के समान है और इस क्षेत्र की विश्वसनीयता व लोकाचार की भावना को भी व्यक्त करती है। यह आवश्यक नहीं है कि रिपोर्ट में इसी शैली का पालन किया जाये और इसके अतिरिक्त अन्य वैकल्पिक शैलियों का भी प्रयोग किया जा सकता है जैसे समस्या-समाधान प्रारूप (प्रौब्लन-सौल्युशन फौरमेट).

अतिरिक्त तत्व जिनका प्रयोग प्रायः पढ़ने वाले को उकसाने के लिए किया जाता है, इसमें शामिल हैं: विषयों की ओर संकेत करने हेतु शीर्षक, अधिक जटिल प्रारूप में चार्ट, सारणी, आकृतियां, सामग्रियों, कठिन शब्दों, सारांश, परिशिष्ट, पाद टिपण्णी, हाइपरलिंक और सन्दर्भ को व्यक्त करने वाली सूची.


रिपोर्ट के कुछ उदहारण हैं: वैज्ञानिक रिपोर्ट, संस्तुति रिपोर्ट, श्वेत पत्र, वार्षिक रिपोर्ट, लेखा परीक्षक की रिपोर्ट, कार्यस्थल रिपोर्ट, जनगणना रिपोर्ट, यात्रा रिपोर्ट, प्रगति रिपोर्ट, जांच सम्बन्धी रिपोर्ट, बजट रिपोर्ट, नियम संबंधी रिपोर्ट, जनंकिकी रिपोर्ट, ऋण रिपोर्ट, समीक्षा रिपोर्ट, निरीक्षण रिपोर्ट, सैन्य रिपोर्ट, बाउंड रिपोर्ट आदि.

सूचना तकनीकी के आकस्मिक विस्तार के साथ और निगमों के बीच और अधिक प्रतिस्पर्धा की बलवती इच्छा के कारण, उद्यम के विभिन्‍न दृष्टिकोणों का एक स्थान पर संयोजन हेतु एकीकृत रिपोर्ट बनाने के लिए कम्प्यूटिंग क्षमता के प्रयोग मैं वृद्धि हुई है।

इसे उद्यम रिपोर्टिंग (इंटरप्राइस रिपोर्टिंग) का नाम दिया गया है, इस प्रक्रिया में विभिन्‍न तार्किक प्रतिदर्शों के आधार पर आंकड़े के स्रोत के सम्बन्ध में पूछताछ सम्मिलित होती है जिससे कि एक मानव पठनीय रिपोर्ट तैयार की जा सके- उदहारण के लिए, एक कंप्यूटर प्रयोगकर्ता को यह प्रदर्शित करने के लिए कि संपूर्ण निगम में कितनी कुशलतापूर्वक पारस्परिक प्रसार का प्रयोग किया जा रहा है, मानव संसाधन आंकड़ाकोषों (डाटाबेस) और उद्यम रिपोर्टिंग, संशोधित व्यवसायिक बुद्धिमत्ता और ज्ञान प्रबंधन की ओर लिए गए बड़े कदमों का एक मूलभूत हिस्सा है। इसके कार्यान्वन में प्रायः एक आंकड़ा भंडार से समन्वय और फिर एक या एक से अधिक रिपोर्टिंग उपकरण के प्रयोग हेतु निष्कर्ष, रूपांतरण और भार (इटीएल)(ETL) पद्धति शामिल होती है। जहां रिपोर्ट मुद्रित रूप में या ईमेल के दुवारा वितरित की जा सकती है, वहीं इसके अधिगम के लिए आम तौर पर एक निगमित इंट्रानेट का प्रयोग किया जाता है।

भाग-3


7. वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली का आशय बताते हुए उसके महत्त्व को प्रतिपादित कीजिए ।

Answer 7 :-

वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग (वैतशआ ; सीएसटीटी) हिन्दी और अन्य सभी भारतीय भाषाओं के वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दों को परिभाषित एवं नये शब्दों का विकास करता है। भारत की स्वतन्त्रता के बाद वैज्ञानिक-तकनीकी शब्दावली के लिए शिक्षा मन्त्रालय सन्‌ 1950 में बोर्ड की स्थापना की।

सन्‌ 1952 में बोर्ड के तत्त्वावधान मैं शब्दावली निर्माण का कार्य प्रारम्भ हुआ। अन्तत: 1960 मैं केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय और 1961 ई. में वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग की स्थापना हुई। ।

इस प्रकार विभिन्‍न अवसरों पर तैयार शब्दावली को 'पारिभाषिक शब्द संग्रह' शीर्षक से प्रकाशित किया गया, जिसका उद्देश्य एक ओर वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग के समन्वय कार्य के लिए आधार प्रदान करना था और दूसरी ओर अन्तरिम अवधि में लेखकों को नयी संकल्पनाओं के लिये सर्वसम्मत पारिभाषिक शब्द प्रदान करना था।

स्वतन्त्रता के बाद भारत के संविधान के निर्माताओं का ध्यान देश की सभी प्रमुख भाषाओं के विकास की ओर गया। संविधान में हिन्दी को संघ की राजभाषा के रूप मैं मान्यता दी गयी और केन्द्रीय सरकार को यह दायित्व सौंपा गया कि वह हिन्दी का विकास-प्रसार करें एवं उसे समृद्ध करे। तदनुसार भारत सरकार के केन्द्रीय शिक्षा मन्त्रालय ने संविधान के अनुच्छेद 357 के अधीन हिन्दी का विकास एवं समृद्धि की अनेक योजनाएँ आरम्भ कीं।

इन योजनाओं में हिन्दी में तकनीकी शब्दावली के निर्माण का कार्यक्रम भी शामिल किया गया ताकी ज्ञान-विज्ञान की सभी शाखाओं में हिन्दी के माध्यम से अध्ययन एवं अध्यापन हो सके। शब्दावली निर्माण कार्यक्रम को सही दिशा देने के लिये 1950 में शिक्षा सलाहकार की अध्यक्षता में वैज्ञानिक शब्दावली बोर्ड की स्थापना की गयी।

पहले यह कार्य शिक्षा मन्त्रालय के अन्तर्गत हिन्दी एकक द्वारा किया जाता था किन्तु बाद में विभिन्‍न विषयों की हिन्दी शब्दावली का निर्माण करने के दौरान यह ज्ञात हुआ कि यह काम बहुत ही अधिक विशाल, गहन और बहुआयामी है।



इसके पूरे होने मैं बहुत समय लगेगा और इस कार्य के लिये सभी विषयों के विशेषज्ञों एवं आषाविदों की आवश्यकता होगी। अतः भारत सरकार ने अक्तूबर, 1961 को प्रख्यात वैज्ञानिक डॉ. डी.एस. कोठारी की अध्यक्षता में वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग की स्थापना की ताकि शब्दावली निर्माण का कार्य सही एवं व्यापक परिप्रेक्ष्य में कार्यान्वित किया जा सके।

हिन्दी तथा अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओं को प्रशासन, शिक्षा तथा परीक्षा का माध्यम बनाने का सपना तथा संकल्प स्वंतत्रता प्राप्ति के बाद भारत के संविधान निर्माताओं ने बहुत सूझ-बूझ तथा विधार मथन के पश्चात्‌ भारत की जनता के सम्मुख रखा। यह संकल्प, यह सपना भारत की सांस्कृतिक तथा भाषायी विविधता को ध्यान में रखकर लिया गया एक आदर्श ऐतिहासिक फैसला था।

यह एक ऐसा संकल्प था, जो भारत की मिट्टी में जन्‍मी प्रज्ञा को ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में मौलिकता प्रदान करने तथा भारतीयता को सुरक्षित रखने के लिए लिया गया था। यह राष्ट्रीय 'एकता तथा सामाजिक विकास के लिए आवश्यक था तथा एक ऐसा भविष्यगामी फैसला था जिसमें 'सर्वेभवन्तु सुखिन:' की भावना निहित थी।

जब कोई सपना देखा जाता है, जब कोई संकल्प लिया जाता है, जब कोई आदर्श सामने रखा जाता है, तो उसे मूर्तरूप देने के लिए कारगर योजनाओं और उनके क्रियान्वयन की आवश्यकता भी होती है। संविधान की 35वीं धारा में हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के लिए जो विधान किए गए, उन्हें कार्यरूप देने के लिए सरकार ने कई योजनाएं बनाई जिसमें वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली का विकास, मानकीकरण तथा एकरूपता की महत्वाकांक्षी योजना भी थी जो बाद में चलकर भारत सरकार की शिक्षा नीति में भी सम्मिलित की गई।

स्वतंत्रता के समय ज्ञान की विभिन्‍न विधाओं मैं अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व था तथा परिश्चम से लिए हुए उधार के ज्ञान के लिए एक ऐसी शब्दावली भारतीय भाषाओं में विकसित करनी थी 'जिसका जन्म भारत की मिट्टी में नहीं हुआ था। इसी कारण यह एक सहज प्रयास न होकर कुछ अप्राकृतिक स्वरूप ग्रहण करने के लिए बाध्य थी।

इस सायास और नियोजित प्रयास में तकनीकी पर्यायों या समानर्थी शब्दों का विधान किया जाना था। ऐसे पर्याय, जो अन्वेषक या विद्वान की कृति नहीं, बल्कि विषय विशेषज्ञ तथा भाषाविद्‌ दवारा मूल तकनीकी संकल्पना की सूचना अनूदित भाषा में संप्रेक्षित कर सके।



शब्दावली निर्माण की इस असहज प्रक्रिया ने उस समय कई विसंगतियों को जन्म दिया। कई विद्वानों ने उस समय वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली के विकास का काम प्रारंभ कर दिया। कुछ विद्वानों ने शब्दावली को संस्कृतनिष्ठ करना चाहा, तो कुछ ने इसे उर्दू'फारसी और हिन्दुस्तानी कही जाने वाली भाषा में ढालना चाहा।

उस समय कुछ ऐसे भी विद्वान थे जिन्होंने अंग्रेजी के तकनीकी शब्दों को देवनागरी में 'लिप्यांतरण करके स्वीकार करने की पेशकश रखी परंतु इन सबसे वैज्ञानिक तथा तकनीकी विषयों के बहुयामी तथा विशाल शब्द भंडार को अपनी भाषा के व्याकरण, उसकी प्रकृति तथा विद्‌यार्थियो, प्राध्यापकों, शोधार्थियों, अनुवादकों, ग्रंथ लेखकों की आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं हो रही थी और जिस ढंग से लोग शब्दावली का निर्माण कर रहे थे उससे संविधान की गरिमा में निहित आशय की पूर्ति भी नहीं हो रही थी।

'एक ही तकनीकी शब्द के कई-कई पर्याय उपलब्ध होने से एक ऐसी अराजक स्थिति उत्पन्न हो गई जिसने शब्दावली निर्माण के नियोजन तथा प्रबंधन की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित 'किया। ऐसे में भारत सरकार ने यह कार्य अपने हाथ में लेना ही उचित समझा और 1 अक्टूबर 1961 को स्थाई आयोग के रूम में वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग की स्थापना राष्ट्रपति के आदेश के अधीन की गई।वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग (वैतशआ ; सीएसटीटी) हिन्दी और अन्य सभी भारतीय भाषाओं के वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दों को परिभाषित एवं नये शब्दों का विकास करता है। भारत की स्वतन्त्रता के बाद वैज्ञानिक-तकनीकी शब्दावली के लिए शिक्षा मन्त्रालय सन्‌ 1950 में बोर्ड की स्थापना की।

सन्‌ 1952 में बोर्ड के तत्त्वावधान मैं शब्दावली निर्माण का कार्य प्रारम्भ हुआ। अन्तत: 1960 मैं केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय और 1961 ई. में वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग की स्थापना हुई। ।

इस प्रकार विभिन्‍न अवसरों पर तैयार शब्दावली को 'पारिभाषिक शब्द संग्रह' शीर्षक से प्रकाशित किया गया, जिसका उद्देश्य एक ओर वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग के समन्वय कार्य के लिए आधार प्रदान करना था और दूसरी ओर अन्तरिम अवधि में लेखकों को नयी संकल्पनाओं के लिये सर्वसम्मत पारिभाषिक शब्द प्रदान करना था।

स्वतन्त्रता के बाद भारत के संविधान के निर्माताओं का ध्यान देश की सभी प्रमुख भाषाओं के विकास की ओर गया। संविधान में हिन्दी को संघ की राजभाषा के रूप मैं मान्यता दी गयी और केन्द्रीय सरकार को यह दायित्व सौंपा गया कि वह हिन्दी का विकास-प्रसार करें एवं उसे समृद्ध करे। तदनुसार भारत सरकार के केन्द्रीय शिक्षा मन्त्रालय ने संविधान के अनुच्छेद 357 के अधीन हिन्दी का विकास एवं समृद्धि की अनेक योजनाएँ आरम्भ कीं।



इन योजनाओं में हिन्दी में तकनीकी शब्दावली के निर्माण का कार्यक्रम भी शामिल किया गया ताकी ज्ञान-विज्ञान की सभी शाखाओं में हिन्दी के माध्यम से अध्ययन एवं अध्यापन हो सके। शब्दावली निर्माण कार्यक्रम को सही दिशा देने के लिये 1950 में शिक्षा सलाहकार की अध्यक्षता में वैज्ञानिक शब्दावली बोर्ड की स्थापना की गयी।

पहले यह कार्य शिक्षा मन्त्रालय के अन्तर्गत हिन्दी एकक द्वारा किया जाता था किन्तु बाद में विभिन्‍न विषयों की हिन्दी शब्दावली का निर्माण करने के दौरान यह ज्ञात हुआ कि यह काम बहुत ही अधिक विशाल, गहन और बहुआयामी है।

इसके पूरे होने मैं बहुत समय लगेगा और इस कार्य के लिये सभी विषयों के विशेषज्ञों एवं आषाविदों की आवश्यकता होगी। अतः भारत सरकार ने अक्तूबर, 1961 को प्रख्यात वैज्ञानिक डॉ. डी.एस. कोठारी की अध्यक्षता में वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग की स्थापना की ताकि शब्दावली निर्माण का कार्य सही एवं व्यापक परिप्रेक्ष्य में कार्यान्वित किया जा सके।

हिन्दी तथा अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओं को प्रशासन, शिक्षा तथा परीक्षा का माध्यम बनाने का सपना तथा संकल्प स्वंतत्रता प्राप्ति के बाद भारत के संविधान निर्माताओं ने बहुत सूझ-बूझ तथा विधार मथन के पश्चात्‌ भारत की जनता के सम्मुख रखा। यह संकल्प, यह सपना भारत की सांस्कृतिक तथा भाषायी विविधता को ध्यान में रखकर लिया गया एक आदर्श ऐतिहासिक फैसला था।

यह एक ऐसा संकल्प था, जो भारत की मिट्टी में जन्‍मी प्रज्ञा को ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में मौलिकता प्रदान करने तथा भारतीयता को सुरक्षित रखने के लिए लिया गया था। यह राष्ट्रीय 'एकता तथा सामाजिक विकास के लिए आवश्यक था तथा एक ऐसा भविष्यगामी फैसला था जिसमें 'सर्वेभवन्तु सुखिन:' की भावना निहित थी।



जब कोई सपना देखा जाता है, जब कोई संकल्प लिया जाता है, जब कोई आदर्श सामने रखा जाता है, तो उसे मूर्तरूप देने के लिए कारगर योजनाओं और उनके क्रियान्वयन की आवश्यकता भी होती है। संविधान की 35वीं धारा में हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के लिए जो विधान किए गए, उन्हें कार्यरूप देने के लिए सरकार ने कई योजनाएं बनाई जिसमें वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली का विकास, मानकीकरण तथा एकरूपता की महत्वाकांक्षी योजना भी थी जो बाद में चलकर भारत सरकार की शिक्षा नीति में भी सम्मिलित की गई।


स्वतंत्रता के समय ज्ञान की विभिन्‍न विधाओं मैं अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व था तथा परिश्चम से लिए हुए उधार के ज्ञान के लिए एक ऐसी शब्दावली भारतीय भाषाओं में विकसित करनी थी 'जिसका जन्म भारत की मिट्टी में नहीं हुआ था। इसी कारण यह एक सहज प्रयास न होकर कुछ अप्राकृतिक स्वरूप ग्रहण करने के लिए बाध्य थी।

इस सायास और नियोजित प्रयास में तकनीकी पर्यायों या समानर्थी शब्दों का विधान किया जाना था। ऐसे पर्याय, जो अन्वेषक या विद्वान की कृति नहीं, बल्कि विषय विशेषज्ञ तथा भाषाविद्‌ दवारा मूल तकनीकी संकल्पना की सूचना अनूदित भाषा में संप्रेक्षित कर सके।

शब्दावली निर्माण की इस असहज प्रक्रिया ने उस समय कई विसंगतियों को जन्म दिया। कई विद्वानों ने उस समय वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली के विकास का काम प्रारंभ कर दिया। कुछ विद्वानों ने शब्दावली को संस्कृतनिष्ठ करना चाहा, तो कुछ ने इसे उर्दू'फारसी और हिन्दुस्तानी कही जाने वाली भाषा में ढालना चाहा।

उस समय कुछ ऐसे भी विद्वान थे जिन्होंने अंग्रेजी के तकनीकी शब्दों को देवनागरी में 'लिप्यांतरण करके स्वीकार करने की पेशकश रखी परंतु इन सबसे वैज्ञानिक तथा तकनीकी विषयों के बहुयामी तथा विशाल शब्द भंडार को अपनी भाषा के व्याकरण, उसकी प्रकृति तथा विद्‌यार्थियो, प्राध्यापकों, शोधार्थियों, अनुवादकों, ग्रंथ लेखकों की आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं हो रही थी और जिस ढंग से लोग शब्दावली का निर्माण कर रहे थे उससे संविधान की गरिमा में निहित आशय की पूर्ति भी नहीं हो रही थी।

'एक ही तकनीकी शब्द के कई-कई पर्याय उपलब्ध होने से एक ऐसी अराजक स्थिति उत्पन्न हो गई जिसने शब्दावली निर्माण के नियोजन तथा प्रबंधन की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित 'किया। ऐसे में भारत सरकार ने यह कार्य अपने हाथ में लेना ही उचित समझा और 1 अक्टूबर 1961 को स्थाई आयोग के रूम में वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग की स्थापना राष्ट्रपति के आदेश के अधीन की गई।

8. समाचार लेखन और हिंदी के महत्त्व को रेखांकित कीजिए ।

Answer 8 :-

जनसंचार के माध्यम के रूप में हिन्दी का प्रयोग कोई नई बात नहीं है, परन्तु स्वतन्त्रता के बाद हिन्दी भाषा का प्रयोग राजभाषा तथा प्रयोजनमूलक हिन्दी के रूप में निरन्तर विकासमान है। जनसामान्य को उपयोगी सूचनाएं एवं खबरे देने के लिए सदियों से सरकार एवं व्यापारी वर्ग इसी भाषा का प्रयोग करते हैं।

आधुनिक जनसंचार के प्रमुख माध्यम आकाशवाणी, दूरदर्शन, फिल्में, समाचार-पत्र, पत्रिकाएं एवं इंटरनेट हैं। संचार के सभी माध्यमों में हिन्दी ने मजबूत पकड़ बना ली है। चाहे वह हिन्दी के समाचार पत्र हो, रेडियो हो, दूरदर्शन हो, हिन्दी सिनेमा हो, विज्ञापन हो या ओटीटी हो - सर्वत्र हिन्दी छायी हुई है।

वर्तमान समय में हिन्दी को वैश्विक संदर्भ प्रदान करने में उसके बोलने वालों की संख्या, हिदी फिल्में, पत्र पत्रिकाएँ, विभिन्‍न हिन्दी चैनल, विज्ञापन एजेंसियाँ, हिन्दी का विश्वस्तरीय साहित्य तथा साहित्यकार आदि का विशेष योगदान है। इसके अतिरिक्त हिन्दी को विश्वभाषा बनाने मैं इंटरनेट की भूमिका भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।

कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि सन 1991 में हुए उदारीकरण के बाद हिन्दी प्रेस और अन्य हिन्दी माध्यम पूरे देश मैं छाने लगे। आज हिंदी अभिव्यक्ति का सब से सशक्त माध्यम बन गई है। हिंदी चैनलों की संख्या लगातार बढ़ रही है। बाजार की स्पर्धा के कारण ही सही, अंग्रेजी चैनलों का हिंदी मैं रूपांतरण हो रहा है। इस समय हिंदी में भी एक लाख से ज्यादा ब्लॉग सक्रिय हैं। अब सैकड़ों पत्र-पत्रिकाएं इंटरनेट पर उपलब्ध हैं।

हिंदी के वैश्विक स्वरूप को संचार माध्यमों में भी देखा जा सकता है। संचार माध्यमों ने हिंदी के वैश्विक रूप को गढ़ने में पर्याप्त योगदान दिया है। भाषाएं संस्कृति की वाहक होती हैं और संचार माध्यमों पर प्रसारित कार्यक्रमों से समाज के बदलते सच को हिंदी के बहाने ही उजागर किया गया।



हिन्दी आज देशभर में आम बोलचाल की भाषा है। आज अधिकतर लोग हिंदी का प्रयोग कर रहे हैं। हिंदी आज एक ऐसी भाषा है जो दुनिया में इतने बड़े स्तर पर बोली व समझी जाती है। यह तथ्य आज सभी स्वीकार करते हैं कि हिंदी अब व्यावहारिक तौर पर इस देश की संपर्क भाषा बन चुकी है।

अब तो भारत के साथ सम्पर्क रखने के लिए हिंदी की अनिवार्यता विदेशी सरकारें भी महसूस कर रही हैं। इसलिए अमेरिका, चीन, यूरोप तथा अन्य प्रमुख देशों में हिन्दी के अध्ययन की व्यवस्था की जाने लगी है।

विदेशों से बड़ी संख्या में छात्र-छात्राएं केंद्रीय हिंदी संस्थान, विभिन्‍न विश्वविद्यालयों और अन्य शिक्षण संस्थाओं में हिंदी पढने के लिए आते हैं। इसके अलावा विभिन्‍न विश्वविद्यालयों हिंदी विषय को लेकर बीए-एमए, करने वाले बच्चों की संख्या भी बढ़ती जा रही है।

हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की पहल हिंदी भाषी नेताओं ने नहीं बल्कि महात्मा गांधी, रवीन्द्र नाथ टैगोर, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी और सुभाषचन्द्र बोस जैसे अहिंदी भाषी लोगों की ओर से की गई। महात्मा गांधी देशभर में अपने भाषण हिंदी या हिंदुस्तानी में ही दिया करते थे।

सुभाषचन्द्र बोस ने आजाद हिंद फौज की स्थापना की तो विभिन्‍न राज्यों के सैनिकों को जोड़ने का काम हिंदी के माध्यम से ही किया। गांधीजी ने आज़ादी से पहले ही विभिन्‍न अहिंदी भाषी राज्यों, विशेषकर दक्षिण भारत में हिंदी प्रचारिणी सभाएं बनाईं। इन सभाओं के माध्यम से हजारों हिंदीसेवी तैयार हुए जो देशभक्ति की भावना से हिंदी का प्रचार-प्रसार और शिक्षण करते थे।

9. निम्नलिखित विषयों में से किन्हीं दो पर टिप्पणी लिखिए :

(क) विज्ञापन और हिंदी


Answer - विज्ञापन माध्यम से जनता अथवा उपभोक्ता तक पहुंचने उन्हे अपनी ओर आकर्षित करने, रिझाने, उत्पाद की प्रतिष्ठा तथा उसके मूल्य को स्थापित किया जाता है। इस प्रकार के विज्ञापन निर्माता तब प्रसारित करता है, जब उसका उद्देश्य ग्राहकों के मन मैं अपनी वस्तु का नाम स्थापित करना होता है और यह आशा की जाती है कि ग्राहक उसे खरीदेगा। विज्ञापन विभिन्‍न माध्यमों के आधार पर विशिष्ट उपभोक्ताओ को अपने उद्देश्य के लिये मनाने की इच्छा रखते है।

'किसी उत्पाद अथवा सेवा को बेचने अथवा प्रवर्तित करने के उद्देश्य से किया जाने वाला जनसंचार विज्ञापन कहलाता है। विज्ञापन विक्रय कला का एक नियंत्रित जनसंचार माध्यम है जिसके द्वारा उपभोक्ता को दृश्य एवं श्रव्य सूचना इस उद्देश्य से प्रदान की जाती है कि वह विज्ञापनकर्ता की इच्छा से विचार सहमति, कार्य अथवा व्यवहार करने लगे।

औद्योगिकीकरण आज विकास का पर्याय बन गया है। उत्पादन बढ़ने के कारण यह आवश्यक हो गया है कि उत्पादित वस्तुओ को उपभोक्ता तक पहुँचाया ही नहीं जाय बल्कि उसे उस वस्तु की जानकारी भी दी जाय।

वस्तुतः मनुष्य को जिन वस्तुओ की आवश्यकता होती है व उन्हें तलाश ही लेता इसके ठीक विपरीत उसे जिसकी जरूरत नहीं होती वह उसके बारे में सुनकर अपना समय खराब नहीं करना चाहता।


इस अर्थ में विज्ञापन वस्तुओ को ऐसे लोगों तक पहुँचाने का कार्य करता है जो यह मान चुके होते है कि उन वस्तुओं की उसे कोई जरूरत नहीं है। आशय यह कि उत्पादित वस्तु को लोकप्रिय बनाने तथा उसकी आवश्यकता महसूस कराने का कार्य विज्ञापन करता है। विज्ञापन अपने छोटे से संरचना में बहुत कुछ समाये होते है। आज विज्ञापन हमारे जीवन का अहम हिस्सा बन चुका है।

'किसी भी तथ्य को यदि बार-बार लगातार दोहराया जाये तो वह सत्य प्रतीत होने लगता है - यह विचार ही विज्ञापनों का आधारभूत तत्व है। विज्ञापन जानकारी भी प्रदान करते है। उदाहरण के लिए कोई भी वस्तु जब बाजार में आती है, उसके रूप - रंग - सरंचना व गुण की जानकारी विज्ञापनों के माध्यम से ही मिलती है। जिसके कारण ही उपभोक्ता को सही और 'गलत की पहचान होती है। इसलिए विज्ञापन हमारे लिए जरूरी है।

जहाँ तक उपभोक्ता वस्तुओं का सवाल है, विज्ञापनों का मूल उद्देश्य ग्राहको के अवचेतन मन पर छाप छोड़ जाना है और विज्ञापन इसमें सफल भी होते है। यह 'कहीं पे निगाहें, कही पे निशाना' का सा अन्दाज है।

विज्ञापन सन्देश आमतौर पर प्रायोजकों द्वारा भुगतान किया है और विभिन्‍न माध्यमों के दूवारा देखा जाता है जैसे समाचार पत्र, पत्रिकाओं, टीवी विज्ञापन, रेडियो विज्ञापन, आउटडोर विज्ञापन, ब्लॉग या वेब्साइट आदि।

वाणिज्यिक विज्ञापनदाता अक्सर उपभोक्ताओं के मन में कुछ गुणों के साथ एक उत्पाद का नाम या छवि जोड़ जाते हैं जिसे हम "ब्रान्डिग” कहते है। ब्रान्डिग उत्पाद या सेवा की बिक्री बढाने मैं एक प्रमुख भूमिका निभाता है। गैर-वाणिज्यिक विज्ञापनों का उपयोग राजनीतिक दल, हित समूह, धार्मिक संगठन और सरकारी एजेंसियाँ करतीं हैं।

(ख) फिल्म समीक्षा की हिंदी


हिन्दी सिनेमा, जिसे बॉलीवुड के नाम से भी जाना जाता है, हिन्दी भाषा मैं फ़िल्म बनाने का उद्योग है। बॉलीवुड नाम अंग्रेज़ी सिनेमा उद्योग हॉलीवुड के तर्ज़ पर रखा गया है। हिन्दी फ़िल्म उद्योग मुख्यतः मुम्बई शहर में बसा है। ये फ़िल्में हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और विश्व के कई देशों के लोगों के दिलों की धड़कन हैं।

अधिकतर फ़िल्मों में कई संगीतमय गाने होते हैं। इन फ़िल्मों में हिन्दी की "हिन्दुस्तानी" शैली का चलन है। हिन्दी और उर्दू (खड़ीबोली) के साथ साथ अवधी, बम्बड़या हिन्दी, भोजपुरी,पंजाबी जैसी बोलियाँ भी संवाद और गानों में उपयुक्त होते हैं। प्यार, देशभक्ति, परिवार, अपराध, भ्रय, इत्यादि मुख्य विषय होते हैं।

ज़्यादातर गाने उर्दू शायरी पर आधारित होते हैं। भारत में सबसे बड़ी फिल्म निर्माताओं में से एक, शुद्ध बॉक्स ऑफिस राजस्व का 43% का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि तमिल और | तेलुगू सिनेमा 36% का प्रतिनिधित्व करते हैं,क्षेत्रीय सिनेमा के बाकी 2014 के रूप में 21% का गठन है।

बॉलीवुड दुनिया में फिल्म निर्माण के सबसे बड़े केंद्रों में से एक है। बॉलीवुड कार्यरत लोगों की संख्या और निर्मित फिल्मों की संख्या के मामले में दुनिया मैं सबसे बड़ी फिल्म उद्योगों में से एक है। किसी भी राष्ट्र की आत्म उसकी संस्कृति होती है। बालीवुड ने भारतीय संस्कृति को, भारत की आत्मा को मिटाने का कार्य दशको से किया है। और यह नेपोटिज्म, अभारतीयकरण, सनातन धर्म विरोध, भारतीय सेना का निरंतर अपमान, पाकिस्तान प्रेम, भारत का अराष्ट्रीयकरण तथा 2019 के लाकडाउन में बठी फुहडता, अमर्यादा, अनैतिकता और अश्लीलता के कारण आम जन के निशाने पर आ गया है। और इसका पूर्ण बहिष्कार भारत में 2019 से ही निरंतर जारी है।

इसे अब कुछ वर्षों से कराची वुड या उर्दू वुड भी कहा जाता है। कोरोना काल के बाद हिंदी सिनेमा जगत के लिए बहिष्कार ही जारी है। आए दिन किसी भी फिल्म या कलाकार को सोशल मीडिया पर बायकॉट किया जाता है। रिलीज से पहले ही फिल्मों का बहिष्कार किया जाता है। इतना ही नहीं कई मॉकों पर पूरी बॉलीवुड इंडस्ट्री को ही बायकॉट करने की मुहिम चलाई जा चुकी है।

(ग) फैशन जगत में हिंदी

Answer - 

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