भाग-1
1. साहित्यिक पत्रकारिता के स्वरूप विकास पर प्रकाश डालिए ।
Answer 1 :-
हिंदी पत्रकारिता का दूसरा युग 1873 से 1900 तक चलता है। इस युग के एक छोर पर आारतेन्दु का "हरिश्चंद्र मैगजीन" था ओर नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा अनुमोदनप्राप्त "सरस्वती" इन 27 वर्षों मैं प्रकाशित पत्रों की संख्या 300-350 से ऊपर है और ये नागपुर तक फैले हुए हैं। अधिकांश पत्र मासिक या साप्ताहिक थे।
मासिक पत्रों में निबंध, नवल कथा (उपन्यास), वार्ता आदि के रूप में कुछ अधिक स्थायी संपत्ति रहती थी, परन्तु अधिकांश पत्र 10-15 पृष्ठों से अधिक नहीं जाते थे और उन्हें हम आज के शब्दों में "विचारपत्र" ही कह सकते हैं। साप्ताहिक पत्रों में समाचारों और उनपर टिप्पणियों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान था।
वास्तव में दैनिक समाचार के प्रति उस समय विशेष आग्रह नहीं था और कदाचित् इसीलिए उन दिनों साप्ताहिक और मासिक पत्र कहीं अधिक महत्वपूर्ण थे। उन्होंने जनजागरण में अत्यंत महत्वपूर्ण भाग लिया था।
उन्नीसवीं शताब्दी के इन 25 वर्षों का आदर्श भारतेन्दु की पत्रकारिता थी। "कविवचनसुधा" (1867), "हरिश्चंद्र मैगजीन" (1874), श्री हरिश्चंद्र चंद्रिका" (1874), बालबोधिनी (स्त्रीजन की पत्रिका, 1874) के रूप में भारतेन्दु ने इस दिशा में पथप्रदर्शन किया था। उनकी टीकाटिप्पणियों से अधिकरी तक घबराते थे और "कविवचनसुधा” के "पंच" पर रुष्ट होकर काशी के मजिस्ट्रेट ने भारतेन्दु के पत्रों को शिक्षा विभाग के लिए लेना भी बंद करा दिया था।
इसमें संदेह नहीं कि पत्रकारिता के क्षेत्र भी भारतेन्दु पूर्णतया निर्भीक थे और उन्होंने नए नए पत्रों के लिए प्रोत्साहन दिया। "हिंदी प्रदीप", "भारतजीवन" आदि अनेक पत्रों का नामकरण भी उन्होंने ही किया था। उनके युग के सभी पत्रकार उन्हें अग्रणी मानते थे।
भारतेन्दु के बाद इस क्षेत्र में जो पत्रकार आए उनमें प्रमुख थे पंडित रुद्रदत्त शर्मा, (भारतमित्र, 1877), बालकृष्ण भट्ट (हिंदी प्रदीप, 1877), दुर्गाप्रसाद मिश्र (उचित वक्ता, 1878), पंडित सदानंद मिश्र (सारसुधानिधि, 1878), पंडित वंशीधर (सज्जन-कीर्त्ति-सुधाकर, 1878), बदरीनारायण चौधरी "प्रेमधन" (आनंदकादंबिनी, 1881), देवकीनंदन त्रिपाठी (प्रयाग समाचार, 1882), राधाचरण गोस्वामी(भारतेन्दु, 1882), पंडित गौरीदत्त (देवनागरी प्रचारक, 1882), राज रामपाल सिंह (हिंदुस्तान, 1883), प्रतापनारायण मिश्र (ब्राहमण, 1883), अंबिकादत्त व्यास, (पीयूषप्रवाह, 1884), बाबूरामकृष्ण वर्मा (भारतजीवन, 1884), पं. रामगुलाम अवस्थी (शुभचिंतक, 1888), योगेशचंद्र वसु (हिंदी बंगवासी, 1890), पं. कुंदनलाल (कवि व चित्रकार, 1891) और बाबू देवकीनंदन खत्री एवं बाबू जगन्नाथदास (साहित्य सुधानिधि, 1894) |
1895 ई. में "नागरीप्रचारिणी पत्रिका” का प्रकाशन आरंभ होता है। इस पत्रिका से गंभीर साहित्यसमीक्षा का आरंभ हुआ और इसलिए हम इसे एक निश्चित प्रकाशस्तंभ मान सकते हैं। 1900 ई. में "सरस्वती" और "सुदर्शन" के अवतरण के साथ हिंदी पत्रकारिता के इस दूसरे युग पर पटाक्षेप हो जाता है।
इन 25 वर्षों में हिन्दी पत्रकारिता अनेक दिशाओं में विकसित हुई। प्रारंभिक पत्र शिक्षाप्रसार और धर्मप्रचार तक सीमित थे। भारतेन्दु ने सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक दिशाएँ भी विकसित कीं उन्होंने ही "बालाबोधिनी" (1874) नाम से पहला स्त्री-मासिक-पत्र चलाया। कुछ! वर्ष बाद महिलाओं को स्वयं इस क्षेत्र में उतरते देखते हैं - "भारतभगिनी" (हरदेवी, 1888), "सुगृहिणी" (हेमंतकुमारी, 1889)।
इन वर्षों में धर्म के क्षेत्र में आर्यसमाज और सनातन धर्म के प्रचारक विशेष सक्रिय थे। ब्रहमसमाज और राधास्वामी मत से संबंधित कुछ पत्र और मिर्जापुर जैसे ईसाई केंद्रों से कुछ ईसाई धर्म संबंधी पत्र भी सामने आते हैं, परंतु युग की धार्मिक प्रतिक्रियाओं को हम आर्यसमाज के और पौराणिकों के पत्रों में ही पाते हैं।
आज ये पत्र कदाचित् उतने महत्वपूर्ण नहीं जान पड़ते, परंतु इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने हिन्दी की गद्यशैली को पुष्ट किया और जनता में नए विचारों की ज्योति भी। इन धार्मिक वादविवादों के फलस्वरूप समाज के विभिन्न वर्ग और संप्रदाय सुधार की ओर अग्रसर हुए और! बहुत शीघ्र ही सांप्रदायिक पत्रों की बाढ़ आ गई। सैकड़ों की संख्या में विभिन्न जातीय और वर्गीय पत्र प्रकाशित हुए और उन्होंने असंख्य जनों को वाणी दी।
आज वही पत्र हमारी इतिहासचेतना में विशेष महत्वपूर्ण हैं जिन्होंने भाषा शैली, साहित्य अथवा राजनीति के क्षेत्र में कोई अप्रतिम कार्य किया हो। साहित्यिक दृष्टि से "हिंदी प्रदीप" (1877), ब्राहमण (1883), क्षत्रियपत्रिका (1880), आनंदकादंबिनी (1881), भारतेन्दु (1882), देवनागरी प्रचारक (1882), वैष्णव पत्रिका (पश्चात् पीयूषप्रवाह, 1883), कवि के चित्रकार (1897), नागरी नीरद (1883), साहित्य सुधानिधि (894) और राजनीतिक दृष्टि से भारतमित्र (1877), उचित वक्ता (1878), सार सुधानिधि (1878), भारतोदय (दैनिक, 1883), भारत जीवन (1884), भारतोदय (दैनिक, 1885), शुभचिंतक (1887) और हिंदी बंगवासी (1890) विशेष महत्वपूर्ण हैं।
इन पत्रों में हमारे 9वीं शताब्दी के साहित्यरसिकों, हिंदी के कर्मठ उपासकों, शैलीकारों और चिंतकों की सर्वश्रेष्ठ निधि सुरक्षित है। यह क्षोभ का विषय है कि हम इस महत्वपूर्ण सामग्री का पत्रों की फाइलों से उद्धार नहीं कर सके।
बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, सदानं मिश्र, रुद्रदत्त शर्मा, अंबिकादत्त व्यास और बालमुकुंद गुप्त जैसे सजीव लेखकों की कलम से निकले हुए न जाने कितने निबंध, टिप्पणी, लेख, पंच, हास परिहास औप स्केच आज में हमें अलभ्य हो रहे हैं। आज भी हमारे पत्रकार उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं। अपने समय मैं तो वे अग्रणी थे ही।
बीसर्वी शताब्दी की पत्रकारिता हमारे लिए अपेक्षाकृत निकट है और उसमें बहुत कुछ पिछले युग की पत्रकारिता की ही विविधता और बहुरूपता मिलती है। 9वीं शती के पत्रकारों को भाषा- शैलीक्षेत्र में अव्यवस्था का सामना करना पड़ा था। उन्हें एक ओर अंग्रेजी और दूसरी और उर्दू के पत्रों के सामने अपनी वस्तु रखनी थी।
अभी हिंदी में रुचि रखनेवाली जनता बहुत छोटी थी। धीरे-धीरे परिस्थिति बदली और हम हिंदी पत्रों को साहित्य और राजनीति के क्षेत्र में नेतृत्व करते पाते हैं। इस शताब्दी से धर्म और समाजसुधार के आंदोलन कुछ पीछे पड़ गए और जातीय चेतना ने धीरे-धीरे राष्ट्रीय चेतना का रूप ग्रहण कर लिया।
'फलत: अधिकांश पत्र, साहित्य और राजनीति को ही लेकर चले। साहित्यिक पत्रों के क्षेत्र में 'पहले दो दशकों में आचार्य द्विवेदी द्वारा संपादित "सरस्वती" (1903-98) का नेतृत्व रहा। वस्तुत: इन बीस वर्षों मैं हिंदी के मासिक पत्र एक महान साहित्यिक शक्ति के रूप में सामने आए।
शृंखलित उपन्यास कहानी के रूप में कई पत्र प्रकाशित हुए - जैसे उपन्यास 1907, हिंदी नाविल 1907, उपन्यास लहरी 1902, उपन्याससागर 1903, उपन्यास कुसुमांजलि 1904, उपन्यासबहार 1907, उपन्यास प्रचार 1921 केवल कविता अथवा समस्यापूर्ति लेकर अनेक पत्र उननीसवीं शतब्दी के अंतिम वर्षो में निकलने लगे थे। वे चले रहे। समालोचना के क्षेत्र में "समालोचक" (1902) और ऐतिहासिक शोध से संबंधित “इतिहास” (1905) का प्रकाशन भी महत्वपूर्ण घटनाएँ हैं।
परंतु सरस्वती ने "मिस्लेनी” () के रूप में जो आदर्श रखा था, वह अधिक लोकप्रिय रहा और इस श्रेणी के पत्रों मैं उसके साथ कुछ थोड़े ही पत्रों का नाम लिया जा सकता है, जैसे "भारतेन्दु" (1905), नागरी हितैषिणी पत्रिका, बॉकीपुर (1905), नागरीप्रचारक (1906), मिथिलामिहिर (1970) और इंदु (1909)।
"सरस्वती" और "इंदु" दौनों हिन्दी की साहित्यचेतना के इतिहास के लिए महत्वपूर्ण हैं और 'एक तरह से हम उन्हें उस युग की साहित्यिक पत्रकारिता का शीर्षमणि कह सकते हैं। “सरस्वती” के माध्यम से आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी और "इंदु” के माध्यम से पंडित रूपनारायण पांडेय ने जिस संपादकीय सतर्कता, अध्यवसाय और ईमानदारी का आदर्श हमारे सामने रखा वह हिन्दी पत्रकारिता को एक नई दिशा देने में समर्थ हुआ।
2. निम्नलिखित विषयों पर टिप्पणी लिखिए।
(क) कविवचन सुधा
Answer 2 :-
कविवचनसुधा भारतेन्दु हरिशचंद्र दवारा सम्पादित एक हिन्दी समाचारपत्र था। इसका प्रकाशन 5 अगस्त 1867 को वाराणसी आरम्भ हुआ जो एक क्रांतिकारी घटना थी। यह कविता-केन्द्रित पत्र था। इस पत्र ने हिन्दी साहित्य और हिन्दी पत्रकारिता को नये आयाम प्रदान किए। हिन्दी के महान समालोचक डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं- "कवि वचन सुधा का प्रकाशन करके भारतेन्दु ने एक नए युग का सूत्रपात किया।"
आरम्भ में भारतेन्दु 'कविवचनसुधा' में पुराने कवियों की रचनाएँ छापते थे, जैसे चंद बरदाई का रासो, कबीर की साखी, जायसी का पद्मावत, बिहारी के दोहे, देव का अष्टयाम और दीनदयालु गिरि का अनुराग बाग।
'कविवचनसुधा' में साहित्य तो छपता ही था, उसके अलावा समाचार, यात्रा, ज्ञान-विज्ञान, धर्म, राजनीति और समाज नीति विषयक लेख भी प्रकाशित होते थे। इससे पत्रिका की जनप्रियता बढ़ती गई। लोकप्रिया इतनी कि उसे मासिक से पाक्षिक और फिर साप्ताहिक कर दिया गया। प्रकाशन के दूसरे वर्ष यह पत्रिका पाक्षिक हो गई थी और 5 सितंबर, 1873 से साप्ताहिक।
भारतेन्दु की टीकाटिप्पणियों से अधिकरी तक घबराते थे और “कविवचनसुधा” के “पंच” पर रुष्ट होकर काशी के मजिस्ट्रेट ने भारतेन्दु के पत्रों को शिक्षा विभाग के लिए लेना भी बंद करा दिया था।
सात वर्षो तक 'कविवचनसुधा' का संपादक-प्रकाशन करने के बाद भारतेन्दु ने उसे अपने मित्र चिंतामणि धड़फले को सौंप दिया और 'हरिश्चंद्र मैग्जीन' का प्रकाशन 5 अक्टूबर, 1873 को बनारस से आरम्भ किया। 'हरिश्चंद्र मैगजीन' के मुखपृष्ठ पर उल्लेख रहता था कि यह 'कविवचनसुधा' से संबद्ध है।
उस ज़माने में यह एक बहुत बड़ी राशि थी। वे 78 वर्ष की उमर मैं रेलवे में बहाल हुए थे। उनका जन्म 1864 ई. में हुआ था और 1882 ई. से उन्होंने नौकरी प्रारंभ की थी। नौकरी करते हुए वे अजमेर, बंबई, नागपुर, होशंगाबाद, इटारसी, जबलपुर एवं झाँसी शहरों में रहे। इसी दौरान उन्होंने संस्कृत एवं ब्रजभाषा पर अधिकार प्राप्त करते हुए पिंगल अर्थात् उंदशास्त्र का अभ्यास किया।
उन्होंने अपनी पहली पुस्तक 895 ई. में श्रीमहिम्नस्तोत्र की रचना की, जो पुष्यदंत के संस्कृत काव्य का ब्रजभाषा में काव्य रूपांतर है। द्विवेदी जी ने सभी पद्यरचनाओं का भावार्थ खड़ी बोली गद्य में ही किया है। उन्होंने इसकी भूमिका मैं लिखा है, “इस कार्य में हुशंगाबादस्थ बाबू हरिश्चन्द्र कुलश्रेष्ठ का जो सांप्रत मध्यप्रदेश राजधानी नागपुर मैं विराजमान हैं, मैं परम कृतज हूँ।”
अपने 'आत्म-निवेदन' मैं उन्होंने लिखा है, “बचपन से मेरा अनुराग तुलसीदास की रामायण और ब्रजवासीदास के ब्रजविलास पर हो गया था। फुटकर कविता भी मैंने सैकड़ों कंठ कर लिए थे।
हुशंगाबाद में रहते समय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के कविवचन सुधा और गोस्वामी राधाचरण के 'एक मासिक पत्र ने मेरे उस अनुराग की वृद्धि कर दी। वहीं मैंने बाबू हरिश्चंद्र कुलश्रेष्ठ नाम के 'एक सज्जन से, जो वहीं कचहरी में मुलाजिम थे, पिंगल का पाठ पढ़ा। फिर क्या था, मैं अपने को कवि ही नहीं, महाकवि समझने लगा।
(ख) अभ्युदय
Answer :-
अभ्युदय का अर्थ 'सांसारिक सौख्य तथा समृद्धि की प्राप्ति'। महर्षि कणाद ने धर्म की परिभाषा में अभ्युदय की सिद्धि को भी परिगणित किया है। भारतीय धर्म की उदार भावना के अनुसार धर्म केवल मोक्ष की सिद्धि का ही उपाय नहीं, प्रत्युत ऐहिक सुख तथा उन्नति का भी साधन है।
इसलिए वैदिक धर्म में अभ्युदय काल में श्राद्ध का विधान विहित है। रघुनन्दन भट्टाचार्य ने अभ्युदय श्राद्ध को दो प्रकार का माना है : भूत जो पुत्रजन्मादि के समय होता है और भविष्यत् जो विवाहादि के अवसर पर होता है। सारांश यह है कि वैदिक धर्म केवल परलोक की ही शिक्षा नहीं देता, प्रत्युत वह इस लोक को भी व्यवहार की सिद्धि के लिए किसी भी तरह उपेक्षणीय नहीं मानता।
प्राचीन समय मैं लोग बहुत अधिक शक्तिशाली होते थे। तथा राजा-महाराजा अपनी सेना मेंकई शक्ति लोगो को रखते थे। व आसपास के राज्यों में शक्तिशाली लोगो का बड़ा-चढ़ाकर प्रचार करते थे। ताकि पडोसी राज्यों पर अपना दबदबा कायम रख सके।
परंतु आस-पडोसी राज्य भी कहा कम थे। वे भी बड़ा-चढ़ाकर अपने शक्ति लोगो का प्रचार करते थे। कौन ज्यादा शक्तिशाली है इस बात का फैसला जब तक मुकाबला नहीं हो कैसे बता सकते है। कौन अधिक शक्तिशाली है, यह पता लगाने के लिए आसपास के कई राज्य मिलकर प्रतियोगिता आयोजित करने लगे। बस यही से ही खेल प्रतियोगिताओं की शुरुआत हुईं। ओलम्पिक खेलो की शुरुआत भी इसी तरह से हुई थी।
प्राचीन समय मैं दौड़, मुक्केबाजी, कुश्ती, तलवारबाजी, भला फेंकना, तीरंदाजी, घुड़दौड़ और रथों की दौड़ आदि कई तरह के खेलो का आयोजन होता था। धीरे-धीरे कई देशो से नए-नए खेल व खिलाडी जुड़ने लगे व ओलम्पिक की शुरुआत हुई।
प्राचीन ओलंपिक खेलों का आयोजन 1200 साल पूर्व योद्धा-खिलाड़ियों के बीच हुआ था। हालांकि ओलंपिक का पहला आधिकारिक आयोजन 1776 ईसा पूर्व में हुआ था, जबकि आखिरी बार इसका आयोजन 394 ईस्वी में हुआ। इसके बाद रोम के सम्राट थियोडोसिस ने इसे मूर्तिपूजा वाला उत्सव करार देकर इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
आधुनिक ओलंपिक खेलों का आयोजन 896 में पहली बार ग्रीस की राजधानी एथैंस में हुआ। आज ओलम्पिक अंतर्राष्ट्रीय खेल जगत की सबसे बड़ी प्रतियोगिता है। ओलम्पिक खेलो का आयोजन हर चार साल में किया जाता है।
(ग) साहित्य और पत्रकारिता का संबंध
भाग-2
3. समकालीन साहित्यिक पत्रकारिता की पृष्ठभूमि को समझाइए ।
4. साहित्यिक पत्रकारिता में अनुवाद का महत्व प्रतिपादित कीजिए ।
5. कल्पना पत्रिका का प्रदेय क्या है, विस्तार से लिखिए।
6. निम्नलिखित विषयों पर टिप्पणी लिखिए:
(क) भारत मित्र का महत्त्व
(ख) स्वदेश की पत्रकारिता
भाग-2
7. सरस्वती की साहित्यिक पत्रकारिता के उदभव एवं विकास पर प्रकाश डालिए ।
8. धर्मयुग की साहित्यिक पत्रकारिता की विशेषताएँ लिखिए।
9. निम्नलिखित विषयों पर टिप्पणी लिखिए:
(क) साक्षात्कार
(ख) हंस
(ग) कर्मवीर