vakrokti ke prakaaron ka vivechan keejie

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vakrokti ke prakaaron ka vivechan keejie

वक्रोक्ति शब्द 'वक्र' और 'उक्ति'- दो शब्दों से मिलकर बना है। वक्र का अर्थ है- टेढ़ा, बांका। उक्ति+- कथन। अर्थात्‌ सीधे सादे सरल ढंग से पृथक असहज, विचित्र और टेढ़ेपन की उक्ति(बात) को वक्रोक्ति कहते हैं। वक्रोक्ति सिध्दांत के प्रवर्त्तक का श्रेय कुन्तक को है, यधपि अतिरिक्त अलंकार, रीति, रस और ध्वनि ये प्रमुख काव्य-तत्व भी सम्यक्‌ रूप से प्रतिपादित हो चुका था, किन्तु ने अपने वक्रोक्ति का व्यापक अर्थ ग्रहण करते हुए 'वक्रोक्तिजीवितम्‌' में काव्य का प्राण (आत्मा) तत्व की घोषणा की। कुन्तक के उपरान्त इस सिध्दान्त का अनुकरण और न ही खण्डन ही हुआ। विश्वनाथ ने खण्डन अवश्य किया, वह अशास्त्रीय एवं असंगत है। कुन्तक ने वक्रोक्ति के भेद, व्याकरण तथा काव्यशास्त्र के समन्वित आधार पर किए हैं। भाषा की सूक्ष्मतम इकाई है - वर्ण और स्थूलतम है - वाक्य। इन दोनों के मध्य में पद स्थित है, जिसे व्याकरणिक द ष्टि से प्रक ति और प्रत्यय नामक दो भागों में विभाजित किया गया है। कुन्तक ने इन्ही के भेदों को आधार बनाया है। इस प्रकार कन्तक ने व्याकरण कथा काव्यशास्त्र का समन्वित आधार लेकर वक्रोक्ति के छः भेद किए हैं-

1. वर्णविन्यास वक्रताः इस वक्रता के अन्तर्गत कुन्तक ने व्यंजन वर्णो से उत्पन्न होनेवाले समरत सोनन्‍्दर्य-प्रकारों को लिया है। प्राचीन आचार्यों द्वारा वर्णित अनुप्रास तथा यमक शब्दालकारों का उन्होंने इसी वक्रता में अन्तर्भाव किया है। कुन्तक ने इस वक्रता के कई भेदों का उल्लेख किया है। इन्हें संक्षेप में बताना ही युक्तिसंगत है।

2. पवपूर्वार्द वक्रताः संस्क त-व्याकरण में पद, प्रक ति एवं प्रत्यय के योग से निष्पन्न होता है। यदि पाचक शब्दों को लें तो यहाँ पच्‌ धातु है, जिसे प्रक ति कहा जाता है और ण्वुल प्रत्यय। इसी व्याकरणिक आधार पर ही कुन्तल ने पदवक्रता को दो भागों में विभाजित कर प्रक ति पक्ष को पदपूर्वार्द्ध और प्रत्यय पक्ष को पदपरार्द्ध नाम दिया है! ". 

3. पवपरार्द वक्रताः काव्य में प्रत्यय अंश से भी रम्यता उत्पन्न होती है। पुरुष वचन, कारक आदि साधारणतः: प्रत्यय में छिपे रहते हैं, इसलिए इस वक्रता को प्रत्यय-वक्रता कहा जाता है!

4. वस्तु या वाक्य वक्रता: वर्णनीय वरतु का उत्कर्षशाली रवभाव से सुन्दररूप में वर्णन-वस्तु वक्रता कहलाता है। वरतु के स्वभाव के अनुरूप कभी कवियों को रवामाविक सौन्दर्य प्रकाशित करना अभीष्ट होता है। और कभी रचना-वैचित्र्य से युक्त सोन्दर्य को अंकित करना। प्रथम प्रकार में कवि अपनी प्रतिभा के बल पर वस्तु के स्वाभाविक सौन्दर्य का वर्णन करता है- यह सहजता कहलाती है। द्वितीय प्रकार में कवि शक्ति, व्युत्पत्ति और अभ्यास के बल पर कवि-कौशल द्वारा वस्तु का अंकन करता है- यह आहार्या कहलाती है।

5. प्रकरण यक्रताः प्रबन्ध के एक देश या कथा के एक प्रसंग को प्रकरण कहते हैं। विभिन्‍न प्रकरणों के समुच्चय से ही प्रबन्ध बनता है। प्रकरण अंग है और प्रबंध अंगी।

6. प्रबन्ध वक्रता: प्रबन्ध-कल्पना ही कवि-प्रतिभा का निकष है। प्रबन्ध में कवि को दो धरातलों पर द ष्टि रखनी पड़ती है जिस प्रकार प थ्वी अपने अक्ष पर प्रतिदिन परिभ्रमण करती हुईं भी वर्ष में सूर्य के चारों की परिक्रमा पूर्ण करती है। 
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