कृष्ण भक्ति काव्य में कृष्ण और राधा का स्वरूप krshn bhakti kaavy mein krshn aur raadha ka svaroop
कृष्ण और राधा के स्वरूप का विकास अनेक भावधाराओं के संयोग से हुआ है| कृष्ण के साथ गाय, चरवाहे, खेती और किसानी की कथाएँ देखकर तथा यह समझते हुए कि कृष्ण के भाई बलराम हल लेकर चलते हैं, पश्चिम के विद्वानों ने अनुमान लगाया है कि वह फसल के देवता रहे होंगे। किंतु भारतीय विद्वान ऐसा नहीं मानते। भारतीय विद्वानों का कहना है कि कृष्ण नाम बहुत प्राचीन है| इसका प्रमाण यह है कि नारायण और वासुदेव धीरे-धीरे कृष्ण के व्यक्तित्व में ही समाहित हो गए। पुराणों में नारायण और विष्णु अभिन्न हो गए। किंतु पुराणों से यह भी पता चलता है कि विष्णु का बैकुंठ श्री कृष्ण के गोलोक में समाहित होता गया। पुराणों से ही पता चलता है कि विष्णु का स्थान श्वेत द्वीप था इस श्वेत द्वीप को लेकर ही योरोप के विद्वान अनेक मत गढ़ने लगे और कहने लगे कि यह द्वीप निश्चय ही योरोप में होगा। वे भूल गए कि पाणिनि (7वीं शताब्दी ईसा पूर्व) ने एक जगह कृष्ण और अर्जुन का उल्लेख धार्मिक नेता के रूप में किया है। मेगस्थनीज (ई.पू. तीसरी शताब्दी) के प्रमाण से पता चलता है कि कृष्ण की पूजा तीसरी शताब्दी के ई. पू. से होने लगी थी और कृष्ण विष्णु के अवतार माने जाने लगे थे। कृष्ण के ऐतिहासिक पुरुष होने में कोई संदेह इसलिए नहीं है कि अवतार के रूप में वे बहुत दिनों से पूजित चले आ रहे थे। धीरे-धीरे उनके साथ गोपाल लीला, रास लीला और चीरहरण की कथाएँ श्रीमद्भागवत् के आधार पर और रसिक भक्तों की कल्पनाओं से जुड़ने लगीं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने मध्ययुगीन धर्मसाधना में लिखा है- “श्री कृष्णावतार के दो मुख्य रूप हैं एक में वे यदुकुल के श्रेष्ठ रत्न हैं, राजा हैं, वीर हैं, कंसारि हैं। दूसरे में वे गोपाल हैं, गोपी जन बल््लभ हैं, राधाधर सुधापानि शालि बनमालि हैं| प्रथम रूप का पता बहुत पुराने ग्रंथों से चल जाता है पर दूसरा रूप अपेक्षाकृत नवीन है। धीरे-धीरे दूसरा रूप ही प्रधान हो गया और पहला रूप गौण।" विद्वानों ने अश्वघोष की एक पंक्ति में गोपाल कृष्ण का पुराना रूप खोजा है| महाभारत में भी एक जगह गोविंद द्वारिकावासिन गोपीजन प्रिया आया है। 'हरिवंश पुराण' में तो कृष्ण गोपाल पर बीस अध्याय ही लिखे गए हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इस संदर्म में आगे लिखा है “मथुरा में श्री कृष्ण के जन्म का उत्कीर्ण चित्र प्राप्त हुआ है जो संपूर्ण नहीं है। चौथी शताब्दी से कृष्णलीला की प्रमुख कथाएँ बहुत लोकप्रिय हो गई थीं ऐसा जान पड़ता है| मंसोर मंदिर के टूटे हुए दो द्वार स्तंभ प्राप्त हुए जिनमें गोवर्द्धन धारण, नवनीति चौर्य, शकट भंग, धेनुक वध और कालिय दमन की लीलाएँ उत्कीर्ण हैं। महाबलीपुरम में भी गोवर्द्धनधारी की उत्कीर्ण मूर्ति मिली है। ऐसा जान पड़ता है कि गोवर्द्धनधारण श्री कृष्ण चरित की सर्वप्रिय लीला उन दिनों रही होगी। इस प्रकार शिल्प और साहित्य दोनों की गवाही से पता चलता है कि आरंभ में श्री कृष्ण की वीरचर्चा प्रधान थी।”
श्री कृष्ण का रसिक रूप वैष्णव भक्तों और साधनाओं के प्रचार और विस्तार से सामने आया है। भागवत् पुराण ने भी इस क्षेत्र में बड़ी भूमिका अदा की है| इस पुराण में कंसवंध, पूतना वध तथा राक्षसों की कथाओं का विस्तार से वर्णन है। इस पुराण में कंसारि कृष्ण और गोपाल कृष्ण एक हो जाते हैं। धीरे-धीरे कृष्ण आभीर नामक एक चुमक्कड़ जाति के देवता के रूप में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। आभीर कृष्ण की बाल-लीलाओं को ही वैष्णवों ने स्वीकार कर लिया और यही बाल कृष्ण अपने संपूर्ण रूप और सौंदर्य के साथ हिंदी के ब्रजभाषा काव्य में चित्रित किए गए।| सूरदास ने कृष्ण को बाल ब्रहम के रूप में प्रस्तुत किया है। अपनी लीलाओं को करने के लिए कृष्ण बैकुंठ को गोलोक पर उतार लाते हैं यह गोलोक ब्रज है। कृष्ण के अवतारी व्यक्तित्व को लेकर एक जगह सूरदास ने कहा-
वेद उपनिषद जस कहैं निगुनहिं बतावै
सोई सगुन नंद की दावरी बधावै।
भक्तों के लिए अवतार धारण कर यह ब्रह्म लीला करता है। कृष्ण असुरों का संहार करते हैं और परमानंद सदासुखरासी बन जाते हैं। इस प्रकार श्री कृष्ण का स्वरूप एक लोकरंजक भक्त नायक के रुप में प्रस्तुत किया गया है। कृष्ण ऐतिहासिक व्यक्तित्व से ऊपर उठकर परम देवता के आसन पर पहुँचे हैं और पूर्णब्रहम के पर्याय बन गए हैं।