अनेकार्थता anekaarthata
IGNOU SERVICESeptember 01, 2021
अनेकार्थता-प्रत्येक विकासशील भाषा में अनेकार्थता आ ही जाती है। अर्थ की अनेकता अथवा अर्थ के रूप में विविध प्रयोग भाषा के बीच सहज प्रक्रिया के रूप में आ जाता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि शब्द अपने नवीनतम अर्थ धारण करने के पश्चात् भी पुराने अर्थ को नहीं छोड़ता ओर ऐसी दशा में कभी-कभी तीन-चार अर्थ एक समय में चलते रहते हैं; जेसे-अर्थ-धन, मतलब, कारण।
अक्ष-आँख, सर्प, ज्ञान, मण्डल, रथ, पहिया, आत्मा
खर-दुष्ट, गधा, तिनका, एक राक्षस
गुरु-शिक्षक, ग्रह विशेष, श्रेष्ठ, भार इत्यादि।
इस प्रकार “नाम' ओर “रूप' का ऐसा सम्बन्ध है कि 'नाम' का प्रयोग विस्तृत रूप से अनेक “रूपों! के सन्दर्भ में होता रहा है।
हिन्दी में शब्द स्तरीय अनेकार्थता
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(क) विरासत में मिली अनेकार्थता-हिन्दी भाषा की विरासत संस्कृत का शब्द भण्डार है। हिन्दी का शब्द भण्डार संस्कृत (तत्सम), देशज, विदेशी आदि शब्दों से समृद्ध हुआ है। संस्कृत में अनेकार्थता का समृद्ध संसार है, जो हिन्दी को विरासत में मिली है। वेसे
अरबी-फारसी तथा अंग्रेजी के शब्दों का भी हिन्दी में समावेश हुआ है। जैसे-
अक्षर-ब्रह्मा, विष्णु, अकारादि, वर्ण, शिव, धर्म, मोक्ष, गगन, सत्य, जल, तपस्या आदि।
अतिथि-मेहमान, साधु, यात्री, अपरिचित व्यक्ति, राम का पोता या कुश का बेटा इत्यादि।
(ख) ऐतिहासिक ध्वनि प्रक्रिया परिवर्तन और आदान के ध्वन्येक्य से उत्पन्न अनेकार्थता-हिन्दी भाषा लगभग 1000 ई. के आस-पास से प्रचलन में आई है। इसकी उत्पत्ति एक भाषिक विकास की प्रक्रिया है-संस्कृत > पालि > प्राकृत > अपभ्रंश > हिंदी।
इस प्रकार हिन्दी तक आते-आते अनेक ध्वनियों में उच्चारण एवं प्रयोग की दृष्टि से परिवर्तन हुए। कभी-कभी इन ध्वनि समूहों में ध्वन्यैक्ता की स्थिति आ जाती हे और ऐसे समय अर्थ में विस्तार हो जाता है तथा अनेकार्थता की स्थिति उत्पन्न हो जाती हे; जेसे-
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जगत्-संसार (तत्सम)
जगत-कुएँ का चौतरा (तद्भव)
नाई-हज्जाम
नाई-तरह, समान
हल्ू-शुद्ध व्यंजन (तत्सम)
हल-खेत जोतने का औजार इत्यादि।
हिन्दी भाषा आगत शब्दों में भी ध्वन्यैक्य की स्थिति आ जाती है; जैसे-
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बस-अब खत्म करो
बस-( अंग्रेजी) यात्री के लिए परिवहन का साधन।
(ग) नवशब्द निर्माण से उत्पन्न अनेकार्थता-आधुनिक युग में ज्ञान-विज्ञान के प्रसार ने शिक्षा के साधनों में क्रांतिकारी परिवर्तन किया है। अध्ययन-अध्यापन के क्रम में हिन्दी भाषा में भी अनेक प्रकार के नवीन शब्दों का निर्माण हुआ है। इसके अतिरिक्त अनेक शब्द ऐसे हैं, जिनका व्यवहार आज किसी नए अर्थ में होता है; जैसे-मंत्री शब्द पहले मंत्रणा के अर्थ में था, आज मंत्रालय के रूप में मंत्री का अर्थ Minister के रूप में है |
(घ) हिन्दी के प्रत्ययों के अनेकार्थी होने के कारण अनेकार्थता-हिन्दी में कभी-कभी प्रत्ययों के संयोग से निर्मित शब्दों के थे भी बहुलता के साथ उपलब्ध होते हैं। यह अनेकार्थता उनके प्रत्यय की देन होती है; जेसे-खिलाना का अर्थ खाने ओर खेलने दोनों से हे।
(डः ) अनेकार्थता के कुछ अन्य स्त्रोत-कई बार व्यक्ति किसी चीज की माँग उसके जातिवाचक शब्द से करता है, जहाँ अनेक अर्थ छिपे हो सकते हैं जेसे-वहाँ जानवर रहते हैं। जानवर से हिंख्र पशु का बोध भी होता है, यथा-शेर, बाघ, चीता आदि तो जानवर विशेषण भी। वेज ही 'खिलोना' कहने से हाथी, घोड़ा, बस, टेडी आदि सभी का बोध हो जाता है। इन शब्दों को आच्छादक (cover) नाम भी कहते हैं।
शब्द संयोग-स्तर पर अनेकार्थता-शब्दों के संयोग से जब कई अर्थों की प्रतीति होती हैं तो उसे शब्द-संयोग अनेकार्थता कहते हें;
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जैसे-अनुपयुक्त - उपयुक्त नहीं।
अनुप + युक्त <
असरकारी - गेर-सरकारी
असर+कारी - असर करने वाला।
यह सभंग श्लेष कहलाता है। संस्कृत में इस पर कई ग्रंथ हें।
अनेकार्थता की स्थिति में अर्थविनिश्चय-शब्द अनेकार्थी होते ही हैं। इस प्रकार के शब्दों का अर्थ-निश्चय उसका वाक्य में प्रयोग करने से हो जाता हे अर्थात् किसी शब्द का सर्वाधिक उपयुक्त एवं प्रायोजनिक अर्थ कौन-सा है, इसका विश्लेषण विद्वानों ने निम्न सन्दर्भों से लेने के लिए कहा हैं-
संयोग, विप्रयोग, साहचर्य, विरोधिता, प्रयोजन, प्रकरण, लिंग, शब्द सान्निध्य, सामर्थ्य, ओचित्य, देशकाल, व्यक्ति विशेष, स्वर, इत्यादि। अतः शब्द का अर्थ उसके प्रयुक्तिपरक संदर्भों से निश्चित किया जा सकता है; जेसे-मुझे क्रिकेट खिलाओगे। यहां 'खिलाना' का अर्थ-खाना भी होता है, लेकिन वाक्यगत प्रयोग से पता चलता है कि वह किक्रेट के लिए कह रहा है, जो कि खेलने से सम्बन्धित हे।